Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--16


देवदास ःशरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

16

 महीने बीत गये। देवदास आरोग्य हो गये, पर अभी शरीर नही भरा। वायु-परिवर्तन आवश्यक था।

कल पश्चिम की ओर जायेगे, साथ मे केवल धर्मदास रहेगा।

चन्द्रमुखी ने देवदास का हाथ पकड़कर कहा-‘तुम्हे एक दासी भी तो चाहिए-मुझे साथ लेते चलो।’

देवदास ने कहा-छिः! यह क्या हो सकता है? और जो चाहे सो करूं, परन्तु इतनी बड़ी निर्लज्जता नही कर सकता।’’

चन्द्रमुखी चुप हो रही। वह अबूझ नही है, सब बाते सहज ही समझ गयी, और जो हो, पर इस संसार मे उसका सम्मान नही है, उसके रहने से देवदास की अच्छी सेवा होगी, सुख मिलेगा, किन्तु कही भी सम्मान नही मिलेगा। आंख पोछकर कहा-‘अब फिर कब देख सकूंगी?’

देवदास ने कहा-‘यह नही कह सकता। चाहे कही भी होऊं, परन्तु तुम्हे भूलूंगा नही, तुम्हे देखने की तृष्णा कभी मिटेगी नही।’

प्रणाम करके चन्द्रमुखी अलग खड़ी हो गयी। मन-ही-मन कहा-यही मेरे लिए यथेष्ट है, इससे अधिक आशा करना व्यर्थ है।’

जाने के समय देवदास ने चन्द्रमुखी के हाथ मे और दो हजार रुपये रखकर कहा-‘इन्हे रखो। मनुष्य के शरीर का कोई विश्वास नही है, पीछे तुम दुख-सुख मे किसके आगे हाथ पसारोगी?’

चन्द्रमुखी ने इसे भी समझा, इसी से रुपया ग्रहण कर लिया। आंसू पोछकर पूछा-‘तुम एक बात मुझे बताते जाओ।’

देवदास ने मुख की ओर देखकर कहा-‘क्या?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘बड़ी बहू-तुम्हारी भाभी-ने कहा था कि तुम्हारे शरीर मे बुरा रोग उत्पन्न हो गया है, यह क्या सच है?’

प्रश्न सुनकर देवदास को दुख हुआ, कहा-‘बड़ी बहू सब कह सकती है, किन्तु क्या तुम नही जानती? मेरा कौन-सा भेद तुम नही जानती? एक विषय मे तो पार्वती से भी बढ़ी हुई हो।’

चन्द्रमुखी ने एक बार आंख पोछकर कहा-‘सब समझ गयी। परन्तु फिर भी खूब सावधानी से रहना।

तुम्हारा शरीर निर्बल है, देखो किसी प्रकार की त्रुटि न होने पावे।’ प्रत्युत्तर मे देवदास ने केवल हंस दिया।

चन्द्रमुखी ने कहा-‘और एक भिक्षा है, तनिक भी तबीयत खराब होने पर मुझे खबर अवश्य देना।

देवदास ने उसके मुख की ओर देखकर सिर नीचा करके कहा-‘दूंगा-अवश्य दूंगा बहू।’ फिर एक बार प्रणाम करके चन्द्रमुखी रोती हुई दूसरे कमरे मे चली गयी।

कलकत्ता से आकर देवदास कुछ दिन इलाहाबाद रहे। उसी बीच उन्होने चन्द्रमुखी को एक चिट्ठी लिखी-‘बहू, मैने विचार किया है कि अब किसी से प्रेम न करूंगा। एक तो प्रेेम करके खाली हाथ लौटने से बड़ी यातना मिलती है, दूसरे इस संसार मे प्रेम का पथ ही दुख और दैन्य से पूर्ण है।’

इसके उत्तर मे चन्द्रमुखी ने क्या लिखा, इसके लिखने की यहां आवश्यकता नही है, पर इस समय देवदास मन-ही-मन केवल यही सोचते रहते थे कि एक बार उसका यहां आना ठीक होगा या नही?

दूसरे ही क्षण सोचते-‘नही-नही, कोई काम नही है। यदि किसी दिन पार्वती सुन लेगी, तो क्या कहेगी? इस भांति कभी पार्वती और कभी चन्द्रमुखी उनके हृदय-आवास मे वास करती थी। और कभी दोनो के ही सुख एक साथ उनके हृदय-पट पर अंकित होते थे...

हृदय ऐसा शून्य हो जाता था कि केवल एक निजीव अतृप्ति उनके हृदय मे मिथ्या प्रतिध्वनि की भांति गूंज उठती थी। इसके बाद देवदास लाहौर चले गये। वहां चुन्नीलाल नौकरी करते थे, खबर पाकर भेट करने के लिए आये। बहुत दिनो के बाद आज दोनो मित्र एक-दूसरे को देखकर लज्जित और साथ ही सुखी हुए। फिर देवदास ने शराब पीना शुरू किया। चन्द्रमुखी की छाया उनके मन मे बनी हुई थी, उसने शराब का निषेध किया था। सोचते, वह कितनी बड़ी बुद्धिमती है! कैसी धीरा और शान्त है, कितना उसका स्नेह है! पार्वती इस समय स्वह्रश्वनवत्‌ विस्मृत हो रही थी-केवल बुझते हुए दीप के समान जब-तब उसकी स्मृति भभक उठती थी। परन्तु यहां की जलवायु उनके अनुकूल नही पड़ी। बीच-बीच मे बीमार पड़ने लगे, छाती मे फिर कड़क जान पड़ती थी। धर्मदास ने एक दिन रोते-रोते कहा-‘देवता, तुम्हारा शरीर फिर गिर चला, इसलिए और कही चलो!’

देवदास ने अनमने भाव से जवाब दिया-‘अच्छा, चला जायेगा।’

देवदास प्रायः घर पर शराब नही पीते। किसी दिन चुन्नीलाल के आने पर पीते है और किसी दिन बाहर चले जाते है। रात के तीसरे-चौथे पहर घर लौटते थे और किसी-किसी दिन नही भी आते थे।

आज दो दिन से उनका पता नही है। मारे शोक के धर्मदास ने अब तक अन्न-जल भी नही ग्रहण किया।

तीसरे दिन वे ज्वर लेकर घर लौटे। चारपाई पकड़ ली। तीन डॉक्टरो ने आकर चिकित्सा आरम्भ की।

धर्मदास ने पूछा-‘देवता काशी मे मां को यह खबर भेज दूं?’ देवदास ने तत्काल बाधा देकर कहा-‘छिः-छिः! मां को क्या यह मुंह दिखाने लायक है?’

धर्मदास ने इसके प्रतिवाद मे कहा-‘रोग-शोक तो सभी को होते है, पर क्या इसी से इतने बड़े दुख को मां से छिपाया जा सकता है? तुम्हे कोई लज्जा नही है देवता, काशी चलो।’

देवदास ने मुंह फिराकर कहा-‘नही धर्मदास, इस समय उनके पास नही जा सकूंगा। अच्छा होने के बाद देखा जायेगा।’

धर्मदास ने मन मे सोचा कि चन्द्रमुखी की चर्चा करे, किन्तु वह स्वयं ही उससे इतना घृणा करता था कि यह विचार उठने पर भी वह चुप ही रहा।

देवदास की चन्द्रमुखी को बुलाने की स्वयं भी इच्छा होती थी, पर कह कुछ नहीं सकते थे। अस्तु, कोई आया नही। कुछ दिन के बाद धीरे-धीरे आरोग्य होने लगे। एक दिन उन्होने धर्मदास से कहा‘अगर तुम्हारी इच्छा हो तो चलो इस बार और कही चला जाये’

इस समय और कही चलने की जरूरत नही है, अगर हो सके तो घर चलो, नही तो मां के पास चलो।’

माल-असबाब बांधकर, चुन्नीलाल से विदा लेकर, देवदास फिर इलाहाबाद चले आये। शरीर इस समय भली-भांति अच्छा हो गया था। कुछ दिन रहने के बाद उन्होने एक दिन धर्मदास से कहा-‘धर्म, किसी नयी जगह नही चलोगे? अभी तक बम्बई नही देखी, वहां चलोगे?’

उनका अतिशय आग्रह देखकर इच्छा न रहते हुए भी धर्मदास बम्बई चलने को तैयार है....

यहां आकर देवदास को बहुत कुछ आराम मिला।

एक दिन धर्मदास ने कहा-‘यहां रहते बहुत दिन हो गये, अब घर चलना अच्छा होगा।’

देवदास ने कहा-‘नही, यहां अच्छी तरह हूं। अभी कुछ दिन यहां और रहूंगा।’

एक वर्ष बीत गया। भादो का महीना था। एक दिन प्रातःकाल देवदास धर्मदास के कन्धे के सहारे से बम्बई-अस्पताल से बाहर आकर गाड़ी मे बैठे। धर्मदास ने कहा-‘देवता, मेरी सलाह से इस समय मां के पास चलना अच्छा होगा।’

देवदास की दोनो आंखे डबडबा आयी। आज कई दिन से वे भी मां को स्मरण कर रहे थे। अस्पताल मे पड़े-पड़े वे जब-तब यही सोचते थे कि इस संसार मे उनके सभी है और कोई भी नही है। उनके मां है, बड़ा भाई है, बहिन से बढ़कर पार्वती है, चन्द्रमुखी भी है। उनके सभी है, पर वे किसी के नही है। धर्मदास रोने लगा, कहा-‘भाई, इससे अच्छा है कि मां के पास चलो।’

देवदास ने मुंह फेरकर आंसू पोछकर कहा-‘नही धर्मदास, मां को मुंह दिखाने लायक नही हूं। जान पड़ता है, अभी मेरा समय नही आया।’

वृद्ध धर्मदास फूट-फूट कर रोने लगा, कहा-‘भैया, अभी तो मां जीती ही है।’

इस बात मे कितना भाव भरा हुआ था-इसका उन्ही दोनो की अन्तरात्मा अनुभव कर सकी। देवदास की अवस्था इस समय बड़ी शोचनीय थी। सारे पेट की ह्रश्वलीहा और फेफडे़ ने छेक लिया था, उस पर ज्वर और खांसी का प्रबल प्रकोप था। शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था, केवल ठठरी मात्र बच रही थी। आंखे भीतर की ओर घुस गयी थी, उनमे एक प्रकार की अस्वाभाविक उज्ज्वलता चमका करती थी। सिर के बाल बड़े रूखे-रूखे हो रहे थे, सम्भवतः चेष्टा करने से गिने भी जा सकते थे। हाथ की उंगलियो को देखने से घृणा उत्पन्न होती थी-एक तो वे नितान्त दुबली-पतली, दूसरे कुत्सित रोगो के दाग से खराब हो गयी थी। स्टेशन पर आकर धर्मदास ने पूछा-‘कहां का टिकट कटाया जायेगा देवता?’

देवदास ने कुछ सोचकर कहा-‘चलो पहले घर चले, फिर देखा जायेगा।’

गाड़ी ह्रश्वलेटफार्म पर आयी। वे लोग हुगली का टिकट खरीदकर बढ़ गये। धर्मदास देवदास के पास हो रहा। संध्या के कुछ पहले ही देवदास की आंखो से चिनगारियां निकलने लगी। धीरे-धीरे धुआंधार बुखार चढ़ आया। उन्होने धर्मदास को बुलाकर कहा-‘धर्मदास आज ऐसा मालूम पड़ता है कि घर भी पहुंचना कठिन होगा।’

धर्मदास ने डरकर कहा-‘क्यो भैया?’

देवदास ने हंसने की चेष्टा करके कहा-‘फिर बुखार चढ़ आया धर्मदास!’

काशी को गाड़ी पार कर गयी तब तक देवदास अचेत थे। पटना के पास आकर जब उन्हे होश हुआ, तो कहा-‘तब तो धर्मदास, मां के पास सचमुच नही जा सके।’

धर्मदास ने कहा-चलो, भैया, पटना मे उतरकर हम डॉक्टर को दिखा ले।’

उत्तर मे देवदास ने कहा-‘रहने दो, अब हम लोग घर पर ही चलकर उतरेगे।’

गाड़ी जब पंडुआ स्टेशन पर आकर खड़ी हुई, तब पौ फट चुकी थी। रात-भर खूब वर्षा हुई थी,

अभी थोड़ी देर से थमी हुई है। देवदास उठ खड़े हुए। नीचे धर्मदास सोया हुआ था। धीरे से उसके सिर पर हाथ रखा, किन्तु लज्जावश जगा नही सके। फिर द्वार खोलकर धीरे से नीचे ह्रश्वलेटफार्म पर उतर गये।

गाड़ी सोये हुए धर्मदास का लेकर चली गयी। कांपते-कांपते देवदास स्टेशन के बाहर आये। एक गाड़ीवान को बुलाकर पूछा-‘क्या हाथीपोता चल सकता है?’

उसने एक बार मुंह की ओर, फिर एक बार इधर-उधर देखकर कहा-‘नही बाबू, रास्ता अच्छा नही है।

घोड़े की गाड़ी ऐसे कीचड़ पानी मे उधर नही जा सकेगी।’

देवदास ने उद्विग्न होकर पूछा-‘क्या पालकी मिल सकती है?’

गाड़ीवान ने कहा-‘नही।’

देवदास इसी आशंका मे धप्‌ से बैठ गये कि क्या तब जाना नही होगा? उनके मुख से उनकी अन्तिम अवस्था के चिन्ह सुस्पष्ट प्रकट हो रहे थे। एक अन्धा भी उसे भलीभांति देख सकता था।

गाड़ीवान ने दयार्द्र होकर पूछा-‘बाबूजी, एक बैलगाड़ी ठीक कर दे?’

देवदास ने पूछा-‘कब पहुंचूंगा?’

गाड़ीवान ने कहा-‘रास्ता अच्छा नही है, इससे शायद दो दिन लग जायेगे।’

देवदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि दो दिन जीते रहेगे या नही। पर पार्वती के पास जाना जरूरी है। इस समय उनके मन मे पिछले दिनो के बहुत-से झूठे आचार-व्यवहार और बहुत-सी झूठी बाते एक-एक करके स्मरण आने लगी। किन्तु अन्तिम दिन की इस प्रतिज्ञा को सच करना ही होगा।

चाहे जिस तरह से हो, एक बार उसे दर्शन देना ही होगा। पर अब इस जीवन की अधिक मियाद बाकी नही है, इसी की विशेष चिन्ता है।

देवदास जब बैलगाड़ी मे बैठ गये, तो उन्हे माता का ध्यान आया। वे व्याकुल होकर रो पड़े। जीवन के इस अन्तिम समय मे एक और स्नेहमयी पवित्र प्रतिमा की छाया दिखायी पड़ी-यह छाया चन्द्रमुखी की थी। जिसे पापिष्ठा कहकर सर्वदा घृणा की, आज उसी को जननी की बगल मे गौरवमय आसन पर आसीन देख उनकी आंखो से झर-झर जल झरने लगा। अब इस जीवन मे उससे फिर कभी भेट नही होगी और तो क्या वह बहुत दिन तक उनके विषय मे कोई खबर तक न पायेगी! तब भी पार्वती के पास चलना होगा। देवदास ने प्रतिज्ञा की थी कि एक बार वे और भेट करेगे। आज उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करना होगा। रास्ता अच्छा नही है। वर्षा के कारण कही-कही जल जमा हो गया है और कही अगलब गल की पगडंडी कटकर गिर पड़ी है। सारा रास्ता कीचड़ से भरा हुआ है। बैलगाड़ी हचक-हचक कर चलती है। कही उतर कर चक्का ठेलना पड़ता है, कही बैलो को बेरहमी के साथ मारना पड़ता है-चाहे जिस तरह से हो, यह सोलह कोस का रास्ता तय करना ही होगा। हर-हर करके ठंडी हवा बह रही थी।

आज भी उन्हे संध्या के बाद विषम ज्वर चढ़ आया। उन्होने डरकर पूछा-‘गाड़ीवान, और कितना चलना होगा?’

गाड़ीवान ने जवाब दिया-‘बाबू, अभी आठ-दस कोस और चलना है।’

‘जल्दी से चलो, तुम्हे अच्छा इनाम मिलेगा।’-जेब मे सौ रुपये का नोट था, उसी को दिखलाकर कहा-‘जल्दी चलो, सौ रुपये इनाम दूंगा।’

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